गुरु और शिष्य - बोधकथा
Guru Aur Shisha Bodh Katha in Hindi
Moral Story in Hindi
नई-नई दीक्षा पाए शिष्य ने अपने गुरु से कहा, 'गुरुदेव, उपासना में बिल्कुल ही मन नहीं लग रहा। बहुत कोशिश करके भी भगवान की ओर चित्त स्थिर नहीं होता।' गुरु कुछ देर तक शिष्य को देखते रहे। लगा जैसे कुछ समझने की कोशिश में हों। बोले, 'सच ही कहते हो वत्स, यहां ध्यान लगेगा भी नहीं। कहीं और चलकर साधना करेंगे। हो सकता है वहां ध्यान लग जाए। आज शाम में ही वहां चल देंगे।'
सूर्यास्त होते ही वे दोनों एक ओर चल पड़े। गुरु के हाथ में एक कमंडल था, शिष्य के हाथ में थी एक झोली, जिसे वह बड़ी मुश्किल से संभाले हुए चल रहा था। रास्ते में एक कुआं आया। शिष्य ने शौच जाने की इच्छा व्यक्त की। दोनों रुक गए। बहुत सावधानी से शिष्य ने झोला गुरु के पास रखा और शौच के लिए चल दिया। जाते-जाते उसने कई बार झोले पर नजर डाली। 'गड़ाम' एक तीव्र प्रतिध्वनि सुनाई दी और झोले में पड़ी कोई वस्तु कुएं में जा समाई। शिष्य दौड़ा हुआ आया और चिंतित स्वर में बोला, 'भगवन, झोले में सोने की ईंटें थीं, वो कहां गईं?' गुरु बोले, 'वो कुएं में चली गईं।
अब तुम्हारा ध्यान लग जाएगा। क्योंकि उसे भटकाने वाली चीज अब नहीं रही। अब कहो तो आगे बढ़ें या फिर वहीं लौट चलें, जहां से आए है। अब ध्यान न लगने की चिंता नहीं रहेगी।' शिष्य की मायूसी भी जाती रही। उसने कहा, 'चलिए, गुरुदेव लौट ही चलें। अब मन से बोझ उतर गया है। अब मुझे विश्वास है कि ईश्वर में मन लग जाएगा।'
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